नौकरी
मेट्रो के दरवाज़े से सरकते हुए उसकी आंखे इंसानों को नहीं सीटों को ढूंढती हैं
लू के थपेड़ों में, गर्मी के प्रहारो और सूखे हुए हलक से वो बुदबुदाता है
हटटट साला आज भी पैरों को आराम नहीं मिलेगा
कमर साली वैसी ही अकड़ती रहेगी
रात की नींद अधूरी है जो काटी बगैर बिजली है
रही सही कसर मेट्रो के एयर कंडीशन ने पूरी कर दी है
कमबख्त आंखें बंद हो रही हैं
नींद का नशा फिर चढ़ने लगा है
अबे बंद मत हो बे
खुली रह
बस घर पहुंचने ही वाले हैं
फिर चाहे जबतक चाहे बंद हो जाना
तभी धम्म की आवाज़ आती है
आंखे बंद हैं
पर दिमाग बताता है वो फर्श पर गिरा पड़ा है
भीड़ फुसफुसाने लगती है
कहीं से कानों में गर्म शीशे सी पिघलती आवाज़ आती है
साला पक्का पी के आया है तभी नशे में है
देखो आंखें भी तो नहीं खुल रहीं
फर्श पर गिरे-गिरे वो चाहता है जवाब दे
वो चाहता है बताना कि नशा दारू का नहीं नींद का है
पर भीड़ को अपनी आंखों देखी पर ज्यादा यकीन है
वो धीरे से मुस्कुराता है
हिम्मत करके खड़ा होता है
ज़ोर से बोलता है
हाँं हाँं मैं नशे में हूं
देश के वो तमाम नौजवान नशे में हैं
जो इंसान नहीं मशीनों की तरह पिसते हैं
कभी बॉस के
तो कभी कंपनी के
कभी मालिक के
तो कभी अपनी किस्मत के लिए
© Alok Ranjan
No comments