तेरा बचपन, मेरा बचपन
उसका गिरना...
गिर के उठना...
मुस्कुराना... रोना...
रूठना... मनाना...
इन सबमें अपने आप को ढूंढता हूं...
उसके छिले हुए घुटने के दर्द में खुद को तलाशता हूं...
उसकी तोतली बोली... आधे अधूरे शब्दों की लड़ी...
गुस्सा...चीखना...चिल्लाना...
सब मुझे अपना ही लगता है...
मां की आंखों में मुझे सब दिखता है...
उसमें वो मेरा अक्स ढूढंती है...
मैं जानता हूं कि मेरा लड़कपन मुझे मिल नहीं सकता...
थोड़ा ही सही पर उसके खिलंदड़पने में अपना बचपन तलाशता हूं...
उसके बचपन में अपना बचपन देखता हूं...
©Alok Ranjan
बेहतरीन... शब्द नहीं हैं... :)
ReplyDeleteबचपन का सोंधापन, ज़हन महका गया। जड़ों से जुड़ा लेखन सदा सबके मन भाया है, यह वही है। शुभकामनाएं।
ReplyDeleteशब्दों की लफ़्फ़ाजी से दूर मन को छू लेने वाले और कहीं दूर पीछे की ओर ले जाने को विवश करती है यह रचना... बहुत बहुत धन्यवाद एवं शुभकामनाएं...
ReplyDeletewow!! fantabulous
ReplyDeleteबेहतरीन आलोक जी...
ReplyDeleteKya Baat hain Aalok Bhai..very nice..
ReplyDelete