आज़ाद और गुलाम
परिंदों को रोज़ सुबह देखता हूं उड़ते हुए
बच्चों की भूख को खुद भूखा रह कर मिटाते हुए
शाम को जब वो घोंसलों में लौटते हैं थक
हार कर
सो जाते हैं आज़ादी की नींद में फिर सुबह
उठने के लिए
सुबह-सुबह तो उठता मैं भी हूं परिंदों की
तरह
बच्चों की भूख मिटाने खुद भी जाता हूं
शाम को घर तो मैं भी लौटता हूं थक हार कर
रात की नींद हमारी भी आज़ादी वाली होती है
कमीनी अगली सुबह फिर गुलाम होने का अहसास
करा जाती है
©Alok Ranjan

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